8 साल पूर्व
त्रेता युग प्रभु राम कालीन युग कहलाता है। रामायण की कथा भी इसी युग में रची गई थी। रामायण की कथा में प्रभु राम व रावण युद्ध का जो वर्णन प्राप्त होता है उसमें अनेक दिव्य अस्त्रों व शस्त्रों के प्रयोग का विवरण मिलता है। द्वापर युग में भी महाभारत के युद्ध में अर्जुन, कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि के माध्यम से अनेक ऐसे अस्त्रों व शस्त्रों के प्रयोग का विवरण मिलता है, जो प्रहारकर्ता की इच्छानुसार क्रियाशील होते थे व तत्अनुसार प्रहार भी करते थे। इन ग्रन्थों में शूल, पाश, पारिघ, गदा, खड्ग, चक्र, बज्र आदि अनेक अस्त्र व शस्त्रों का उल्लेख मिलता है; इन सबमें धनुष बाण का प्रयोग सर्वोपरि व सर्वाधिक विध्वंसकारी शस्त्र के रूप में होता था। मन्त्र उच्चारण कर बाणों में ऐसी शक्ति व प्रभाव उत्पन्न कर दिया जाता था कि वे प्रत्यंचा से छूटते ही अपना विध्वंसकारी रूप दिखाने लगते थे। कभी तो एक बाण से हजारों बाणों की उत्पत्ति कराकर शत्रुदल पर प्रहार किया जाता था, तो कभी बाणों से अग्निवर्षा करा दी जाती थी, कभी भयंकर जलवृष्टि अथवा शत्रु पक्ष को विचलित करने हेतु कभी तो बाणों के माध्यम से रक्त व हड्डी तक की वर्षा युद्ध स्थल पर करा देने का उल्लेख रामायण व महाभारत ग्रंथो में मिलते हैं, यही नहीं शत्रुपक्ष को गुमराह करने हेतु भयंकर अंधकार को उत्पन्न करदिया जाता था, तो कभी गगनभेदी गर्जना, प्रचण्ड चक्रवात, उल्कापात, आदि बाणों के माध्यम से कराये जाते थे। एक साधारण सा दिखाई देने वाला बाण आखिर इतना प्रचंड रूप व प्रभाव कैसे उत्पन्न करता था ? आखिर कौन सी ऐसी शक्ति थी जो बाणों अथवा अन्य शस्त्रों को इतना प्रभावी व विध्वंसकारी बना देती थी ? इस रहस्य के मूल में और कुछ नहीं केवल मंत्र शक्ति ही थी। मंत्रो से उस अस्त्र अथवा शस्त्र को इतना प्रभावी व शक्तिवर्धक बना दिया जाता था कि वह, दिव्यशक्ति से सम्पुष्ट हो जाता था। उस युग का विज्ञान आज के किरण विज्ञान से भी अधिक सूक्ष्म एवं शक्तिमान था।
विभिन्न ग्रंथो एवं कथाओं में वर्णित बहुतेरे प्राचीन प्रसंगों से संज्ञान मिलता हैं कि उस युग के लोगों की इच्छा शक्ति इतनी प्रबल होती थी कि वे कठिनतम साधना करके भी मन्त्र सिद्धि प्राप्त कर लेते थे। उनकी मन्त्र साधना बहुआयामी होती थी। एक एक साधक न जाने कितने ही मन्त्रों की शक्ति ग्रहण किये रहते थे एवं आवश्यकता अनुसार उस शक्ति का प्रयोग करते थे। अनेक ऋषि व महात्माओं के सन्दर्भ में कथानक मिलते हैं कि किस प्रकार उन्होंने मन्त्र शक्ति से किसी रोगपीडि़त व्यक्ति को कष्टमुक्त किया, किस प्रकार किसी का अर्थसंकट दूर किया, किस प्रकार अपनी दिव्या मंत्र शक्ति से किसी निः सन्तान दंपत्ति को संतान सुख प्रदान किया।व्यक्तिगत एवं भौतिक स्वार्थ की उद्देश्य पूर्ति हेतु सृष्टि विरुद्ध कार्य भी संपन्न किये जाते थे।
तत्कालीन ऋषि मुनि गण मन्त्र शक्ति के मर्मज्ञ विद्वान् होते थे। वे अपने शिष्यों को मन्त्र दीक्षा देकर उसें पारंगत बनाते थे। विश्वामित्र मुनि ने श्रीरामचन्द्र को एवं गुरु द्रोणचार्य ने कौरवों व पाण्डवों को मन्त्राभिषिक्त अस्त्र शस्त्रों की शिक्षा दीक्षा प्रदान की थी। समय के आवरण ने तथ्यों को लुप्त कर दिया है, वस्तुत उन महर्षियों ने मन्त्र के साथ तन्त्र और यन्त्र की शिक्षा भी अपने शिष्यों को प्रदान की थी।
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