8 साल पूर्व
किसी मन्त्र का बारमबार उच्चारण अथवा आवृति ही जप कहलाता है। मन्त्र साधना का क्रियात्मक रूप मन्त्र जप ही है। आध्यात्म में जप को महत्तवपूर्ण स्थान प्राप्त है। संसार के लगभग समस्त धर्म व सम्प्रदाय मन्त्र जपक्रिया की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। वस्तुतः सभी धार्मिक क्षेत्रों में मन्त्र साधना किसी न किसी रूप में अवश्य ही प्रचलित है एवं जप, मन्त्र साधना का अपरिहार्य अंग है। मन्त्र जप करने से साधक जो शक्ति अर्जित करता है उसे हवन के माध्यम से स्थायित्व प्राप्त होता है। जप का परित्याग कर मन्त्र साधना की कल्पना करना भी बेमानी है। मन्त्र सिद्धि प्राप्ति हेतु, जप एवं दशमांश हवन, दोनों क्रियायें अनिवार्य हैं। यदि मन्त्र जप का उद्देश्य सिद्धि प्राप्ति का नहीं है तो साधक श्रद्धा पूर्वक केवल जप कर सकता है, इस स्थिति में दशमांश हवन की बाध्यता नहीं होती।
कुछ विशिष्ट शब्दों व वर्णो के उच्चारण के माध्यम से दैवीय शक्तियों को अपने अनुकूल करना मन्त्रों का मूल प्रयोजन है। मन्त्रों का यह मूल प्रयोजन तब भी सिद्ध हो जाता है, जब साधक किसी देवी अथवा देवता के नाम का बारम्बार उच्चारण करे। बारम्बार नाम उच्चारण अथवा स्मरण की निरन्तरता बनाये रखने के लिए नामजप की व्यवस्था की गयी है। मोलिक रूप से अनुभव किया जाए तो मन्त्रजप के समान नामजप भी प्रभावकारी होता है। अनेक शास्त्र एवं पुराणों के माध्यम से इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि भगवान् के किसी भी नाम का जप सर्वाधिक प्रभावशाली होता है एवं इसके सामने बड़े बड़े कर्मकाण्ड एवं यज्ञ व तप भी क्षीण दिखाई देते हैं।
जप क्रिया के सम्बन्ध में वैदिक मान्यताओं एवं आधुनिक युग के वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार, प्रतिदिन लम्बे समय तक यदि कोई साधक जपक्रिया करता है तो इससे उसकी आयु अवधि बढ़ जाती है; कारण कि जप के समय उसकी श्वासगति अति सन्तुलित हो जाती है।
निरंतर जप करने के कारणवर्ष साधक बाह्य विकारों से मुक्त हो जाता है एवं उसका अन्तःकरण शुद्ध व निर्मल हो जाता है। दुर्विचार, दुर्भावनायें, क्रोध, काम एवं ईर्ष्या जैसे दोष न्यून होने प्रारम्भ हो जाते हैं एवं साधक का मन व मस्तिष्क सद्गुणों की ओर उन्मुख होने लगता है। ईश्वर की सत्यता के प्रति उसकी आस्था बढ़ जाती है, जिसके फलस्वरू उसमें ज्ञान, विवेक, शुचिता एवं एक प्रकार की दैवीय तेजस्विता का उद्धभव होना प्रारम्भ हो जाता है।
जप क्रिया से केवल अन्तःकरण शुद्ध व निर्मल ही नहीं हो जाते अपितु भौतिक समस्याओं के निवारण में भी जपक्रिया बहुत सहायक सिद्ध हुई है। उद्देश्यनुसार मन्त्र का चुनाव करके उसका विधिवत् जप करने पर, अनेक साधकों को सांसारिक कष्टों से भी मुक्ति मिली है। शत्रुभय, रोग, ऋण, अर्थलाभ, सन्तानकष्ट, प्रेत बाधा तथा मानसिक विकारों का पूर्ण रूप से निवारण करने में जपक्रिया का प्रभाव चमत्कारी रूप से सिद्ध हुआ है।
जप क्रिया हेतु निर्धारित नियम :
वेद, उपनिषद्, शास्त्र, महाभारत, गीता, मनुस्मृति, तन्त्रसार, कुलार्णव तन्त्र, योगदर्शन, योगसूत्र, भावचूड़ामणि आदि ग्रन्थों में जपक्रिया के समय जिन नियमों के पालन का निर्धारण किया गया है।
जप के प्रभावों का अनुभव करने के लिए एवं जपक्रिया से लाभान्वित होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना परम आवश्यक है-
♦ जप क्रिया करते समय मन्त्रोच्चारण की गति समान रहनी चाहिए। कभी मन्द गति से मन्त्रोच्चारण करना व कभी तीव्र गति से मन्त्रोच्चारण करना, ऐसा जप कदापि उचित नहीं होता है।
♦ जपक्रिया के समय निषिद्ध वस्तुओं का त्याग साधक के लिए अतिआवश्यक है। शिखा खोलकर जप हेतु बैठना, सिर या शरीर पर कोई वस्त्र जैसे पगड़ी, टोपी, गमछा, कुर्ता आदि धारण कर बैठना, आसन विरुद्ध स्थिति में बैठकर जप क्रिया हेतु बैठना, पैर फैलाकर जप क्रिया हेतु बैठना, नग्नावस्था की स्थिति में जप क्रिया हेतु बैठना, भय क्रोध आदि से उत्पन्न मानसिक अस्थिरता की दशा में जप क्रिया करना अथवा अन्य किसी अशुभ अशुचि की अवस्था में जप क्रिया करना निषेध किया गया है।
♦ साधना स्थल पूर्णरूप से सात्विक, शुद्ध, शान्त एवं एकान्तमय होना चाहिए।
♦ जप साधना हेतु आसन एवं माला का चुनाव उद्देश्य तथा मन्त्र की शक्ति को देखते हुए करना आवश्यक है।
♦ यथासम्भव पर्वतशिखर, देवालय, नदीतट, समुद्रतट कोई तपस्थली में जप करना चाहिए। इसके अभाव में घर में ही किसी एकान्त एवं शुद्ध स्थल का चुनाव किया जा सकता है।
♦ जपकाल में साधक के सम्मुख अग्नि, दीपक, सूर्य, जल ध्रुवतारा, गऊ इनमें से कोई भी एक हो तो विशेष उत्तम रहता है।
♦ पंचपात्र, अक्षत, धूप व दीप, पुष्प, पवित्र स्थल एवं देवप्रतिमा अथवा चित्र आदि एवं अन्य आवश्यक सामग्री की भी की जप क्रिया पूर्व समुचित व्यवस्था कर लेना उत्तम रहता है।
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