ज्योतिषशास्त्र : मन्त्र आरती चालीसा

मन्त्र साधना हेतु सर्वोपयुक्त स्थल चयन के पौराणिक नियम

Sandeep Pulasttya

6 साल पूर्व

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जप तप एवं चिन्तन हेतु ऋषि मुनियों ने सदैव गहन वनों, पर्वत शिखरों अथवा एकान्त नदी तटों को ही अति उत्तम स्थल बताया है। इसका वैज्ञानिक आधार भी है, आधुनिक युग में वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि भूमंडलीय स्तर पर वायु दाब व भार अधिक होता है, जिसका कारण, धरती पर निवास करने वाले मुनष्यों के विचारों व वाणी से उत्पन्न होने वाली तरंगो एवं कम्पन से प्रभावित रहता है। भौतिकवादी, स्वार्थमय, छल, प्रपंच एवं षड्यन्त्र पूर्ण विचार से ग्रसित मानव मस्तिष्क से प्रायः मलिन दूषित विचारों से उद्वेलित वायु तरंगें दुर्बल मस्तिष्क वाले मानवों को सरलता से वशीभूत कर लेती हैं; फलतः समाज में वहीं भौतिकतावाद व स्वार्थं से परिपूर्ण विचारधारा बलवती होकर प्रसार पाती रहती है। वस्तुतः ऊँचे वायुमण्डल अथवा निर्जन स्थलों जैसे गहन वनों, पर्वत शिखरों अथवा एकान्त नदी तटों में यह वैचारिक प्रदूषण अल्प अवस्था में मिलता है एवं जो मिलता भी है, वह अधिक क्रियाशील नहीं हो पाता। अतः निचले स्थलों की अपेक्षा ऊँचे स्थलों में रहकर मानसिक एकाग्रता एवं स्वतन्त्र चिन्तन व विचार प्राप्त करना अधिक सुविधाजनक होता है।

साधना स्थल अपनी स्थिति के अनुसार भी प्रभाव दिखाता है चाहे वह शुचिता से परिपूर्ण ही क्यों न हो। अतः ऋषि मुनियों के अनुभवानुसार साधना स्थल का चयन उसकी शुचिता के आधार पर ही नहीं अपितु उसकी स्थिति के आधार पर भी करना उचित रहता है। वन, पर्वतशिखर, मंदिर, श्मशान, सार्वजनिक स्थल, कन्दरा, घर आदि स्थान अपनी बनावट, आसपास की स्थिति, वातावरण, तापमान के अनुसार अलग अलग प्रकार के भाव व प्रभाव रखते हैं।

मन्त्र साधना में सफलता प्राप्ति हेतु ऋषि मुनियों ने ऐसे स्थलों अथवा स्थानों को जहां, कोई एकान्त में बनी वाटिका, ऊँचा पर्वत अथवा पहाड़ी अथवा उसका शिखर, गहन वन का पवित्र स्वच्छ एवं निरापद खण्ड, सिद्ध पीठ का एकान्त स्थल, सिद्ध तीर्थ का एकान्त स्थल अथवा क्षेत्र, पर्वतीय गुफा अथवा कन्दिरा, तराई का क्षेत्र, पीपल अथवा आंवला वृक्ष के तले, बेल वृक्ष की छाया तले, दो नदियों का संगम स्थल, नदी अथवा सरोवर में बैठकर, तुलसी के पौधों से आच्छादित भूमि आदि स्थलों को उपयुक्त बताया है।

आधुनिक जीवन अत्यंत जटिलता धारण कर चुका है। प्रदूषण, अशान्ति, भय, अस्थिरता, भौतिकवाद एवं भ्रम, स्वप्न में भी सन्त्रास दे रहे हैं। ऐसे आस्थावान साधक जो संयमपूर्वक तपस्या एवं साधना करने की क्षमता व उत्साह रखते हैं किन्तु किसी परिस्थितिवश उपर्युक्त वर्णित स्थलों में नहीं पहुँच सकते, तो ऐसे साधकों को अपने घर का कोई शुद्ध पवित्र स्थान, बगीचे अथवा निकटवर्ती मंदिर में कोई एकान्त स्थान को इस कार्य के निष्पादन हेतु चुन लेना उचित रहता है। वहीं वे शुद्धतापूर्वक, परमतन्मय भाव से साधना करें। निश्चय ही वे अपने अभीष्ट उद्देश्य में सफलता प्राप्त करेंगे।

यहां 'एकान्त स्थल' का उल्लेख कई बार हो चूका है, एकान्त स्थल से आशय है कि ऐसे स्थान जहां जान मानस का आवागमन न हो। भीड़ भाड़ वाले स्थानों पर कोलाहल रहता है जिस कारण वर्ष साधक का चित्त एकाग्र नहीं हो पाता है फलस्वरूप बारम्बार ध्यान भंग हो जाता है। इसके परिणाम स्वरूप साधना सफल नहीं ही पाती। अतः ऋषि मुनियों ने अकेले एकांत स्थल पर बैठाकर जप तप का परामर्श दिया है। फिर भी, कुछ व्यक्तियों वस्तुओं जैसे गुरु, गऊ, ब्राह्मण, जल, दीपक, सूर्य, चन्द्रमा की उपस्थिति में अथवा उनके समक्ष की गयी साधना विशेष फलवती मानी गयी है। यदि साधक जपकाल अथवा साधनाकाल में इनका दर्शन लाभ करता रहे, तो साधना का प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है एवं इनकी उपस्थिति से साधक को ऊर्जावान बनाती है। ऐसा ही परिणाम जल में बैठकर तप करने से भी प्राप्त होता है। मन्त्र के स्वर वायु को आन्दोलित करते हैं एवं साधक का शरीर जल की लहरों से स्पंदित होता रहता है, अतः एक प्रकार की विधुत चुम्बक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप साधना का परिणाम अपेक्षाकृत जल्दी दृष्टिगोचर हो जाता है।

जप तप साधना हेतु स्थान के निर्धारण में ऋषि मुनियों ने ऐसे स्थल के चयन का भी अनुमोदन किया है जहाँ भूतकाल में पहले कभी साधना की गयी हो। तर्कस्वरूप एवं विज्ञानसम्मत भी यह परामर्श उपयुक्त लगता है क्यूंकि ऐसे स्थान की भूमि एवं वायुमण्डल में कुछ न कुछ पूर्व प्रभाव अवश्य रहता है। अतः वहाँ की गयी साधना के फल की शीघ्र प्राप्ति संभव है। तीर्थस्थलों, सिद्धपीठों, प्राचीन देवस्थानों और ऐसे ही अन्य स्थलों पर जाकर तप करने की प्रेरणा देने में ऋषि मुनियों व शास्त्राकारों का यही उद्देश्य रहा है कि साधक को वहाँ निर्विघ्न एवं अनुकूल वातावरण प्राप्त रहेगा। शुचिता वहाँ नैसर्गिक रूप में व्याप्त रहती है।

साधक को स्थान का चयन अपनी श्रद्धा, सामर्थ्य एवं रुचि के अनुरूप ही करना चाहिए। जो साधक कहीं बाहर जाकर साधना करने में स्वमं को असमर्थ पाते हैं, वे अपने घर में ही, कोई शान्त, पवित्र एवं एकान्त का चयन कर वहीं बैठकर नियमित रूप से विधि विधान पूर्वक मन्त्र साधना कर सकते हैं। शिव संकल्प, दृढ़ इच्छाशक्ति और श्रद्धा का अवलम्ब लेकर की गयी साधना का फल अवश्य प्राप्त होता है चाहे वह कहीं पर ही क्यों न की गई हो। कितने ही पौराणिक, ऐतिहासिक और वर्तमान के लौकिक प्रसंग इस मान्यता की पुष्टि करते हैं।

 

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