8 साल पूर्व
पौराणिक ऋषि मुनियों का मन्त्रों की रचना में मूल उद्देश्य दैवी शक्तियों को अपने अनुकूल करना रहा होगा। किसी भी मन्त्र विशेष का बारम्बार उच्चारण करना ही जप है। जप के अनेक रूप एवं विधियां स्थित हैं। इनका विभेदन मन्त्र के उद्देश्य, सम्बन्धित देवता, प्रभाव एवं अन्य भौतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये किया गया है। स्वभाविक रूप से भी स्पष्ट है कि मनीषियों ने इनकी सारगर्भित विवेचना करने में अपनी कई पीढि़याँ लगा दी होंगी। आज जो साहित्य उपलब्ध है, उसके माध्यम से मन्त्र साधना एवं जप प्रणाली का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। मन्त्र जप की आपार महिमा का विवेचनात्मक वर्णन प्रायः सभी धर्म ग्रन्थों चाहे वह देशी हों अथवा विदेशी सारगर्भित रूप में प्राप्त होता है।
भारतीय संस्कृति में मन्त्र जप की परम्परा दीर्घकाल से सर्वसम्मत रूप में चली आ रही है। यह अलग है की किसी युग में इस परम्परा का अधिक प्रयोग हुआ एवं किसी युग मैं अपेक्षाकृत कम। किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था उस देश के समाज को अवश्य ही प्रभावित करती है, किन्तु यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि सामाजिक स्थिति पर ही सांस्कृतिक विकास की रूपरेखा निर्मित होती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म का प्रसार विश्वव्यापी रह चुका है, वहां भी इस संस्कृति के अनुनायी थे, इसके स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं। ईरान, रूस, साइबेरिया, दक्षिण पूर्व के देश जैसे मलाया, जावा, कम्बोडिया, सुमात्रा, बाली और जापान में अनेक बार उत्खनन से प्राप्त भारतीय देवी देवताओं की प्रतिमायें इसका स्पष्ट प्रमाण हैं। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश पर विदेशी आक्रमणकारियों ने विभिन्न उद्देश्यों के साथ बार बार आक्रमण किये, कुछ इसे लूट कर ले गए एवं कुछ ने यहां सत्ता कब्जा कर राज भी किया एवं कुछ ने इस पवित्र धरती पर धार्मिक उन्माद फालाये। इस काल में मन्त्र विधा कुछ विशेष लोगों तक ही सीमित रह गयी थी। बाद में अनुकूल स्थिति एवं वातावरण देखकर उन लोगो ने इस संरक्षित विधा को पुनः प्रचारित व प्रसारित किया। सर्वथा निर्मूल न होने वाली यह मन्त्र जप विधा उत्थान पतन के न जाने कितने ही युग देखती हुई चिरकाल से भारतीय संस्कृति का एक गौरवमय अंग बनी चली आ रही है।
विदेशी आक्रांताओं के आवागमन से जहां जान, माल, दशा, मूल्य, सामाजिकता, धर्म आदि की हानि भारत देश को झेलनी पड़ी वहीँ इस कारण भारतीय धर्म संस्कृति को विदेशों तक प्रचार प्रसार भी मिला।
पौराणिक ग्रन्थों के माध्यम से पता चलता है कि वैदिक युग से लेकर ईसा पूर्व की दसवीं सदी तक भारतवर्ष में मन्त्र विधा का आधिक्य रूप में प्रचार व प्रभाव स्थित था। इस काल में तो मन्त्र साधना को दैनिक जीवन का अंग समझा जाता था। कर्मकाण्डी ब्राह्मण व पुरोहित इसे दिनचर्या के रूप में सम्पादित करते थे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मन्त्रों का प्रयोग होता था। कथन तो यह उचित रहेगा कि वैदिककालीन समाज व्यवस्था मन्त्र चालित थी। उस समय समस्त वातावरण, परिवेश, चिन्तन क्षेत्र सब कुछ मन्त्रमय था। बाद में विदेशी आक्रामकों के सम्पर्क ने भौतिकता को बढ़ावा दिया, आध्यात्मिक चिन्तन पर शैनेः शैनेः अनास्था का आवरण पड़ने लगा एवं अन्ततः वह समय भी आ पहुंचा, जिसमें मन्त्र, तन्त्र, जप, योग जेसे आध्यात्मिक विषय उपेक्षा, उपहास, अविश्वास, शंका एवं निन्दा के पात्र बन गये। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी, मन्त्र शास्त्र सर्वथ लुप्त नहीं हुआ; कहीं न कहीं इसमें आस्था रखने वाले साधको से इसे पोषण व संरक्षण मिलता रहा। जिस प्रकार समय कभी एक सा नहीं रहता उसी प्रकार भारत को भी अपने अतीत की गौरव गरिमा का स्मरण होना स्वाभाविक था। उसी के फलस्वरूप भौतिकता से ओत प्रोत इस आधुनिक जीवन शैली में सामाजिक कुरीतियों, भ्रम व आडम्बरों से भरे दिशाहीन व अशान्त विघटित समाज से त्रस्त जनसामान्य में अब फिर से वैदिक व पौराणिक विषयों के प्रति जिज्ञासा जागृत हुई है। शैनेः शैनेः ही सही परन्तु यह प्राचीन पद्द्ति फिर से सांस भरने लगी है व जिस प्रकार समाज में आडम्बर व कुरीतियाँ पाँव पसार चुकी है वह दिन दूर नहीं की इन सबसे निजात पाने हेतु भारतवर्ष के घर घर में इस प्राचीन पद्दति का शंखनाद बज उठेगा।
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