5 साल पूर्व
लंकापति राक्षसराज रावण बड़ा विद्वान और भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त माना जाता है। अपने सौतेले भाई कुबेर की अति सुन्दर स्वर्ण नगरी लंका को उससे छीनकर रावण लंकापति बना था। इसके बाद उसका घमंड और भी बढ़ गया था। शिव का कृपापात्र होने के उपरान्त भी उसके मिथ्या घमंड ने उसे भगवान् शिव के कोप का भाजन भी बनाया।
शिव तांडव स्तोत्र भगवान् भोलेनाथ के परम भक्त विद्वान् रावण द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए रचित एक स्तुति स्तोत्र है। कुबेर व रावण दोनों ऋषि विश्रवा की संतान थे। ऋषि विश्रवा ने कुबेर को स्वर्ण नगरी लंका का राजा नियुक्त किया था किन्तु अपने पिता की आज्ञा पाकर सोने की लंका का त्याग कर कुबेर हिमाचल को चले गए व वहाँ जाकर अलकापुरी नामक एक नूतन नगरी को बसाया |
कुबेर के हिमाचल को प्रस्थान करने के पश्चात कुबेर का सौतेला भाई दशानन अत्यधिक प्रसन्न हुआ। वह लंका का राजा बन गया और लंका का राज्य प्राप्त करते ही धीरे-धीरे वह इतना अहंकारी हो गया कि उसने कुबेर के शुभचिंतकों व समर्थकों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिए।
अपने शुभचिंतकों व समर्थकों पर जब दशानन द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का समाचार कुबेर को प्राप्त हुआ तो उन्होंने अपने भाई को समझाने व ऐसा कुकृत्य न करने के लिए अपना एक दूत भेजा, जिसने कुबेर के कहे अनुसार दशानन को सत्य पथ पर चलने व साधुजनो पर अत्याचार न करने का सुझाव दिया। दूत के माध्यम से कुबेर का सुझाव सुन दशानन को इतना क्रोध आया कि उसने उस दूत को न केवल बंदी बना लिया बल्कि अपनी तलवार से उसकी हत्या भी कर दी।
किन्तु इतने पर भी दशानन का क्रोध शांत नहीं हुआ | दूत की हत्या करने के पश्चात कुबेर को सबक सिखाने के उद्देश्य से वह अपनी सेना लेकर कुबेर की नगरी अलकापुरी पर आक्रमण करने हेतु निकल पड़ा | दोनों भाइयों के बीच भीषण युद्ध हुआ अंततः कुबेर परास्त हुए व दशानन ने कुबेर की नगरी को खंड-खंड कर अपने भाई कुबेर पर भी गदा का भीषण प्रहार किया | दशानन की गदा के भीषण घात से बुरी तरह घायल हुए कुबेर को उसके सेनापतियों ने किसी प्रकार से युद्ध स्थल से निकाल नंदनवन तक पहुँचाया जहाँ वैद्यों ने उसका उपचार कर उसे स्वस्थ किया। इस विजय के पश्चात दशानन घमंड में और भी अधिक मदमस्त हो गया व उसका घमंड व अत्याचार और भी अधिक बढ़ गए |
चूंकि दशानन ने कुबेर की नगरी व उसके पुष्पक विमान पर भी अपना अधिकार कर लिया था, सो एक दिन पुष्पक विमान में सवार होकर शारवन की तरफ चल पड़ा। लेकिन एक पर्वत के पास से गुजरते हुए उसके पुष्पक विमान की गति स्वयं ही धीमी हो गई।
रामायण के उत्तरखंड के अनुसार लंका जीतने के बाद पुष्पक विमान से स्वर्ण-नगरी जाते हुए रास्ते में उसे कैलाश पर्वत दिखा, लेकिन उसका ये अद्भुत विमान भी पर्वत के ऊपर से गुजरने में अक्षम था। इससे हैरान रावण को उसे शिव का वाहन नंदी दिखा और उसने इसका कारण पूछा।
चूंकि दशानन ने कुबेर की नगरी व उसके पुष्पक विमान पर भी अपना अधिकार कर लिया था, सो एक दिन पुष्पक विमान में सवार होकर शारवन की तरफ चल पड़ा। लेकिन एक पर्वत के निकट से निकलते हुए उसके पुष्पक विमान की गति स्वयं ही धीमी हो गई। चूंकि पुष्पक विमान की ये विशेषता थी कि वह चालक की इच्छानुसार चलता था तथा उसकी गति मन की गति से भी तेज थी, इसलिए जब पुष्पक विमान की गति मंद हो गई तो दशानन को बडा आश्चर्य हुआ। तभी उसकी दृष्टि सामने खडे विशाल एवं काले शरीर वाले भगवान शिवजी की सवारी नंदीश्वर पर पडी। दशानन ने नंदीश्वर से इसका रहस्य ज्ञात करने हेतु जिज्ञासावश पूछा तो नंदीश्वर ने दशानन को बताया कि ये भगवान शिव और पार्वती का निवास-स्थल है, इसलिए कोई अपरिचित अथवा अज्ञात इस पर्वत के ऊपर से मार्गी नहीं हो सकता। अभिमानी दशानन ने इसे अपना अपमान समझा एवं पर्वत को उखाड़ने के उद्देश्य से उसने पर्वत की नींव पर हाथ लगाकर उसे उठाना चाहा। ऐसा नहीं कर पाने की स्थिति में कैलाश पर्वत को उखाड़ने के लिए उसने अपने सभी बीस हाथ लगा दिए जिस कारण कैलाश पर्वत बुरी तरह हिलने डोलने लगा।
अचानक इस विघ्न से भगवान शिव विचलित हुए उठे एवं वहीं बैठे-बैठे अपने पाँव के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबा दिया जिससे कि वह स्थिर हो जाए। किन्तु भगवान शिव के ऐसा करने से दशानन की बाँहें कैलाश पर्वत के नीचे दब गई। फलस्वरूप वह दर्द से कराह उठा और शिव से क्षमा-याचना करने लगा। तब दशानन के शुभचिंतक ज्ञानियों ने उसे इस स्थिति से मुक्ति पाने के लिए शिव स्तुत कर उन्हें प्रसन्न करने का सुझाव दिया जिससे कि उसका हाथ कैलाश पर्वत के दबाव से मुक्त हो सके।
भयंकर पीड़ा से पीड़ित दशानन ने अविलम्भ अपना एक सिर काटकर उसकी वीणा बनाई और सामवेद में उल्लेखित भगवान् शिव के सभी स्तोत्रों का भीषण चीत्कार के साथ गान प्रारम्भ कर दिया। दशानन 1000 वर्षों तक निरंतर इन स्तोत्रों का भीषण चीत्कार के साथ गान करता रहा। दशानन की कठोर भक्ति व साधना से अंतत: भगवान् शिव प्रसन्न हुए और उसे इस यातना भरे बंधन से मुक्त किया।
दशानन द्वारा भगवान शिव की स्तुति के लिए जो स्त्रोत गाया गया था, वह दशानन ने भयंकर पीड़ा व क्रोध के कारण भीषण चीत्कार से गाया था और इसी भीषण चीत्कार को संस्कृत भाषा में "राव: सुशरूण:" कहा जाता है। इसलिए जब भगवान शिव, दशानन की स्तुति से प्रसन्न हुए और उसके हाथों को पर्वत के नीचे से बंधन मुक्त किया, तो उसी प्रसन्नता में उन्होंने दशानन का नाम "रावण" अर्थात ‘भीषण चीत्कार करने पर विवश शत्रु’ रखा क्योंकि भगवान शिव ने रावण को भीषण चीत्कार करने पर विवश कर दिया था | तभी से दशानन को रावण कहा जाने लगा।
शिव की स्तुति के लिए रचा गया सामवेद का वह स्त्रोत, जिसका रावण ने भीषण चीत्कार के साथ गान किया था, रावण-स्त्रोत व शिव तांडव स्त्रोत के नाम से सर्वविख्यात है | चूँकि रावण के शिव स्तुति में किये रुद्रं गान से सामवेद में वर्णित इस स्तोत्र को अत्यंत प्रसिद्धि प्राप्त हुई अतः इस स्तोत्र को रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र के नाम से ख्याति प्राप्त हुई व इसे रावण द्रारा ही रचित बताया जाने लगा |
राक्षसराज रावण बड़ा विद्वान व भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त माना जाता है। रावण के पास शिव से प्राप्त एक विशेष शिवलिंग भी था जिसकी पूजा अर्चना कर उसे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती थी।
शिवतांडव स्तोत्र पाठ के लाभ :-
शिव की स्तुति के लिए रचा गया वह सामवेद का वह स्त्रोत, जिसे रावण ने गाया था, आज भी रावण-स्त्रोत व शिव तांडव स्त्रोत के नाम से सर्वविख्यात है। रावण द्वारा रचित शिवतांडव स्तोत्र के श्लोकों में इतनी शक्ति है कि कितनी भी बड़ी समस्या हो, इनके पढ़ने मात्र से उसे दूर किया जा सकता है। भगवान शिव की आराधना व उपासना के लिए रचे गए सभी अन्य स्तोत्रों में रावण रचित या रावण द्वारा गाया गया शिवतांडव स्तोत्र भगवान शिव को अत्यधिक प्रिय है, ऐसी सनातन धर्म की मान्यता है | माना जाता है कि शिवतांडव स्तोत्र द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने से व्यक्ति को कभी भी धन-सम्पति की कमी नहीं होती, आर्थिक समस्या से भी उबरने के लिए शिव तांडव का पाठ करना शुभ सिद्ध होता है।
इसकी स्तुति से धन-धान्य प्राप्ति के अतरिक्त रचनात्मक एवं कलात्मक निपुणता भी प्राप्त की जा सकती है। नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधी आदि सिद्धियां भगवान शिव से ही सम्बंधित हैं, इसलिए शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने वाले को इन विषयों से सम्बंधित सफलता सहज ही प्राप्त होने लगती हैं। शिवतांडव स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से व्यक्ति को जिस किसी भी सिद्धि की महत्वकांक्षा होती है, भगवान शिव की कृपा से वह आसानी से पूर्ण हो जाती है। शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने अथवा पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है अर्थात व्यक्ति जो भी कहता है, वह वैसा ही घटित होने लगता है।
सनातन धर्म के अनुसार शनि को काल कहा जाता है जबकि शिव महाकाल हैं | अत: शनि से पीड़ित जातक को इसके पाठ से बहुत अधिक लाभ प्राप्त होता है। जिन जातकों की जन्म-कुंडली में कालसर्प योग अथवा पितृ दोष होता है, उन जातकों के लिए भी शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत उपयोगी सिद्ध रहता है क्योंकि भगवान शिव को ही आयु, मृत्यु एवं सर्प का स्वामी माना गया है। जब बुरे ग्रह के दोष से मुक्ति पाने के शिव तांडव का पाठ करना अत्यधिक लाभकारी होता है।
स्वास्थ्य की समस्याओं का कोई तत्काल समाधान न निकल पा रहा तो ऐसे में शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत लाभदायक सिद्ध होता है। इसके पाठ से जातक को उत्कृष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है। जातक का चेहरा तेजस्वी बनता है तथा उसके आत्मविश्वास में भी वृद्धि होती है। जातक को जब कभी भी ऐसा प्रतीत हो कि किसी प्रकार का तंत्र, मंत्र एवं शत्रु पीड़ित कर रहा है तो ऐसी स्थिति में शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत लाभप्रद सिद्ध होता है। जीवन में विशेष उपलब्धि पाने के लिए भी शिव तांडव स्तोत्र रामबाण का काम करता है।
कब और कैसे करें शिव तांडव स्तोत्र का पाठ :-
सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रातः काल या प्रदोष काल में स्नान आदि से निवृत होकर सर्वप्रथम शिवलिंग को प्रणाम करें व कच्चे दूध और जल से अभिषेक करे, तत्पश्चात धुप, दीप, पुष्प और नैवैद्य अर्पित करे, भगवन शिव की पूजा अर्चना करने के पश्चात शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना चाहिए | प्रातः काल या प्रदोष काल में इसका पाठ करना सर्वोत्तम होता है। गान के साथ शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना उचित माना गया है | अगर नृत्य के साथ इसका पाठ करें तो सर्वोत्तम होगा। पाठ के बाद शिव जी का ध्यान करें और अपनी प्रार्थना करें।
तांडव नृत्य केवल पुरुषों को ही करने का विधान है। महिलाओं को तांडव करना वर्जित माना गया है |
श्रीरावण कृत शिव तांडव स्तोत्र हिंदी में अनुवाद सहित :-
|| सार्थशिवताण्डवस्तोत्रम् ||
|| श्रीगणेशाय नमः ||
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्ग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥
अपने सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित गंगा की धाराओं से कंठ प्रक्षालित करने वाले, गले में लिपटे लंबे सर्प और डमरू की डम-डम के साथ प्रचण्ड ताण्डव करने वाले हे शिव, हमारा कल्याण करें |
जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पूर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरें उनके शीश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाएं धधक कर प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढता रहे।
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जो पर्वतराजसुता (पार्वती जी) के विलासमय रमणीय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।
जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूं जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूपकेसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभूषित हैं।
सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
जिन शिवजी को देवगण अपने सर के पुष्प अर्पित करते हैं, जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
जिसने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन किया, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म किया, जो सभी देवों द्वारा पूज्य तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्धि प्रदान करें।
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया, जो शिव प्रकृति रूपी पार्वती के स्तन के अग्र भाग पर सृजन रूपी चित्रकारी करने में अति चतुर है, उन शिवजी में मेरी प्रीति अटल हो।
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
जिनका कंठ मेघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान, जगत का बोझ धारण करने वाले वे शिवजी हमें संपन्नता प्रदान करें।
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खों के काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यु को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिवजी को भजता हूँ।
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
कल्याणमय, अविनाशी, जो समस्त कलाओं का आस्वादन करते हैं, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक, जो यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिवजी को भजता हूँ।
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
अत्यंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फुफकार से ललाट में बढी हुई प्रचंड अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिवजी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कठोर पत्थर-कोमल शय्या, सर्प-मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न-मिट्टी के टुकडों, शत्रु-मित्रों, राजाओं-प्रजाओं, तिनकों-कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
कब मैं गंगाजी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिवजी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१४॥
इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढ़ने या श्रवण करने मात्र से प्राणी पवित्र हो, परमगुरु शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१५॥
प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा़ आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।
इति श्रीरावणकृतम् शिव ताण्दव स्तोत्रम् सम्पूर्णम् |
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