8 साल पूर्व
स्वर
श्वास एक ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था व क्रिया है जो प्रत्येक मनुष्य के जन्म के क्षण से लेकर मृत्यु के अंतिम क्षण तक चलती है। शरीर विज्ञान में इसका महत्व सर्वाधिक है, चूंकि श्वास क्रिया पर ही जीवन अवलंबित रहता है। यदि किसी मनुष्य की श्वास बन्द हो जाती है तो उसका शरीर निष्क्रिय, निष्प्राण हो जाता है, यही मृत्यु है। किसी मनुष्य की श्वास बन्द हो जाना उसकी मृत्यु की सूचक है।
स्वर भेद एवं गुण
प्राकृतिक रूप से मनुष्य के शरीर में दो नासाछिद्र श्वास लेने के लिए बने हैं। जो बारी बारी से श्वसन क्रिया करते हैं। कुछ देर तक एक नासाछिद्र कार्यशील रहता है, फिर वह शान्त हो जाता है, तत्पश्चात दूसरा नासाछिद्र कार्यशील हो जाता है। इसी को स्वर कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का स्वर थोड़ी थोड़ी देर में क्रमशः बदलता रहता है कभी दायां स्वर कार्य करता है तो कभी बायां। श्वसन, नाड़ी स्फुरण, पलक चलन यह सब प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत होने वाली क्रियायें हैं, जो स्वतः ही होती रहती हैं। हृदय गति, नाड़ी गति एवं श्वास गति को किसी भी मनुष्य के जीवन का प्रमुख लक्षण माना जाता है।
मन्त्र साधना में स्वर विचार बहुत महत्व रखता है। प्राचीन कालीन ऋषि मुनियों के अनुभव के अनुसार बायें स्वर के समय मनुष्य की चित्तवृत्ति, भावना, धारणाशक्ति और स्नायविक क्रियायें चन्द्र प्रभावित अर्थात् सौम्य, शान्तगुणों वाली होती हैं। इसके विपरीत दाहिना स्वर सूर्य प्रभावित होने के कारण उग्र, उत्तेजक, साहसिक एवं शक्ति सम्पन्न होता है।
मन्त्रज्ञों का विचार है कि जिस समय साधक का बायां स्वर चल रहा हो तब आध्यात्मिक कार्यों जैसे- पूजा, साधना, चिन्तन, जप, तप, अनुष्ठान आदि कार्यों को प्रारम्भ करे एवं जब मनुष्य का दायां स्वर चल रहा हो तब वह व्यावहारिक जगत् के कार्य जैसे- खेलकूद, दौड़, चढ़ाई, श्रम कार्य, व्यायाम, आक्रमण, युद्ध, आखेट, विलास आदि शक्ति सुदर्शन व पौरुष प्रधान वाले कार्यों को प्रारम्भ करे।
मन्त्रानुष्ठान जैसे सौम्य व सात्विक कार्यों हेतु चन्द्रमा के शीतलता प्रधान गुणों से युक्त बायां स्वर विशेष प्रभावकारी होता है। मन्त्रानुष्ठान ही नहीं, अध्यात्म सम्बन्धी कोई भी कार्य, अथवा शान्तिकर्म, भौतिककर्म, मैत्री, ईश्वर दर्शन, योगाभास, यज्ञ, पूजा आदि सभी शान्तिमय मंगल कार्यों का प्रारम्भ, बायें स्वर में करना उचित माना गया है। शस्त्राभ्यास, संगीत साधना, व्यायाम, तान्त्रिक प्रयोग, काम क्रीड़ा, संर्घा, हठ योग साधना जैसे शक्ति सुदर्शन व पौरुष प्रधान कार्यों का प्रारम्भ दायें स्वर के समय श्रेष्ठ होता है।
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