 
                    8 साल पूर्व
 
            
मन्त्र साधना अथवा सिद्धि अथवा अनुष्ठान काल हेतु पौराणिक ग्रंथों में आवश्यक निषिद्ध नियमों, निषिद्ध विधियों एवं निषिद्ध कार्यों का वर्णन किया गया है। कभी कभी साधक से नियमपूर्वक, श्रद्धा, विश्वास एवं भक्ति की जा रही साधना में अज्ञानतावश या उपेक्षावश कोई ऐसा कृत्य हो जाता है, जो साधना को निष्फल कर देता है। अतः साधना में, समस्त नियमों के साथ एक नियम यह भी स्मरण रखने योग्य है कि वर्जित कार्य न किये जायें। निषिद्ध कर्मों की ओर सजग न रहने से साधना निष्फल एवं कभी कभी तो घातक भी हो जाती है।
मन्त्र शास्त्र में, साधना काल में, साधक हेतु निम्नलिखित कार्यों, स्थितियों एवं वस्तुओं का निषेध किया गया है। साधक यदि इस निषिद्ध व्यवस्था के विपरीत आचरण व क्रिया कलाप करता है तो ऐसी स्थिति में अन्ततः वह केवल निष्फल साधना का दंश ही नहीं झेलता अपितु अनेकों प्रकार की आपदाओं से भी ग्रसित हो जाता है।
साधना, सिद्धि एवं अनुष्ठान काल हेतु पौराणिक ग्रंथों व मन्त्र शास्त्रियों के निर्देश अनुसार कुछ आवश्यक निषिद्ध नियमों, निषिद्ध विधियों एवं निषिद्ध कार्यों का वर्णन निम्नवत है :-
♦ मन्त्र साधना में एकाग्रता सर्वोपरि है। अतः साधक को दैहिक क्लेश अथवा रोग की स्थिति में मन्त्र साधना नहीं करनी चाहिए क्यूंकि रोगी देह यथा स्थिति अधिक देर तक स्थिर चित्त बैठकर मनोयोगपूर्वक जप नहीं कर सकता।
♦ स्नान के उपरान्त व शुद्धता के साथ ही मन्त्र साधना का नियम है, अपवित्र अवस्था में साधना करना वर्जित है।
♦ साधक के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने पर भी मन्त्र साधना निषिद्ध है। चूंकि यदि कोई साधक पागलपन, भ्रम, चिन्ता, क्रोध, भय, मूच्र्छा, शोक आदि व्याधियों से ग्रस्त है तो ऐसी अस्थिर मनोदशा की स्थिति में, निश्चित रूप से विघ्न उसकी साधना को बाधित करेंगे।
♦ जप के समय मन्त्र का उच्चारण बहुत ऊँचे स्वर से या गाते हुए नहीं करना चाहिए। उच्चारण की गति भी अधिक तीव्र या मन्द न हो। स्वर और गति दोनों के प्रति सजग रहना चाहिए।
♦ जो साधक विघ्न विक्षेपों से मुक्त न हो उसके लिए मन्त्रानुष्ठान निषिद्ध है।
♦ महर्षि पतंजलिकृत योगदर्शन में साधना को खण्डित कर देने वाले नौ प्रकार के विघ्न एवं पाँच प्रकार के विक्षेप बताये गये हैं। उनका क्रमिक विवरण इस प्रकार है -
विघ्न :- (1) व्याधि, (2) स्त्यान, (3) संशय, (4) प्रमोद, (5) आलस्य, (6) अविरति, (7) भ्रान्तिदर्शन, (8) अलब्ध भूमिकत्व, (9) अनवस्थितत्व (अस्थैर्य)
विक्षेप :- (1) दुःख, (2) दौर्भनस्य, (3) अगमेजयत्व, (4) श्वास, (5) प्रश्वास
♦ वह साधक जो छः प्रकार के मलों राग कालुष्य, ईर्ष्या कालुष्य, परोपकार चिकीर्षा कालुष्य, असूया कालुष्य, द्धेष कालुष्य एवं अमर्ष कालुष्य अथवा इनमें से किसी एक मल से भी, अपने चित्त को सर्वथा मुक्त नहीं रख सकता, उसके लिए साधना व्यर्थ है। उक्त वर्णित छः मल मन्त्र जप व साधना काल में त्याज्य हैं।
♦ गरिष्ठ व तामसिक भोजन मन्त्र जप साधना काल में सर्वथा त्याज्य है चूंकि ऐसे भोजन से साधक कि शुचिता एवं मनोशान्ति नष्ट होती है।
♦ मन्त्र साधना में मादक द्रव्यों व पदार्थों का प्रयोग निषेध है। ऐसा देखा गया है कि साधु फकीर गांजे; चरस का दम लगाकर ध्यान लगाते है, जो की सर्वथा गलत है। मन्त्र साधक हेतु साधनाकाल में समस्त प्रकार की विलासिता एवं मादक पदार्थों जैसे गांजा, भांग, चरस, मदिरा, बीड़ी, सिगरेट, पान, तम्बाकू आदि का सेवन निषेध किया गया है। साधक को चाहिए कि इन्हे सर्वथा त्यागकर संयमित जीवन व्यतीत करे एवं साधना में आस्था के साथ तल्लीन हो जाये।
♦ नग्न होकर साधना नहीं करनी चाहिए। अभिचार कर्म में यदि कहीं ऐसे विधान का वर्णन है तो वह अपवाद स्वरुप ही है।
♦ मन्त्र जप साधना का स्थान अशुद्ध, भ्रष्ट, ऊबड़ खाबड़, अरक्षित अथवा अस्थिर नहीं होना चाहिए।
♦ सिले हुए वस्त्र धारण कर मन्त्र साधना वर्जित है।
♦ नंगी भूमि पर बिना आसन बिछाये बैठकर, मन्त्र जप साधना करना वर्जित है।
♦ आवागमन स्थल व भीड़ भाड़ वाले जनसंकुल स्थान पर जप करना वर्जित किया गया है।
♦ माला जपते समय हाथ एवं सिर खुला नहीं रहना चाहिए। उन्हें किसी वस्त्र से ढक कर माला से जप करें।
♦ दुःख ग्रस्त मनुष्य के लिए मन्त्र जप अनुष्ठान निषिद्ध है। दुखी व्यक्ति को साधना करने हेतु शास्त्र व वैदिक ग्रन्थ आज्ञा नहीं देते हैं। साधक को मन्त्र साधना से पूर्व इन दुःखों जैसे काम, क्रोध, द्धेष, शत्रु, दस्यु, हिंसक पशु, कीट पतंग आदि का सन्त्रास; प्राकृतिक प्रतिकूलताजन्य दुःख जैसे असह्य सर्दी अथवा गर्मी आदि से पूर्णतया मुक्त होकर ही साधना की ओर पग बढ़ाने चाहिए क्यूंकि ऐसी मनोदशा में व्यक्ति का चित्त अशान्त व अस्थिर रहता है जिस कारण साधना व्यर्थ जाती एवं उसका कोई शुभ फल प्राप्त नहीं होता है।
♦ राह चलते या राह में कहीं बैठकर जप नहीं किया जाता। यह नियम केवल किसी विशिष्ट साधना के लिए है। सहज भाव से, नित्य चर्या के रूप में तो कभी भी, कहीं भी मन्त्र जप सकते हैं। उसका भाव देवस्तुति होना चाहिए, न कि मन्त्रसिद्धि।
♦ भोजन ग्रहण करते समय अथवा शयन के समय जप करना वर्जित है। यहां भी विशिष्ट साधना वाली स्थिति लागू होती है।
♦ अश्लील दृश्य, अनैतिक विषयों की चर्चा, कुसंग, श्रृंगार, उत्तेजक वस्तु, उत्तेजक दृश्य अथवा वार्तालाप व कामचिन्तन मंत जप साधना काल में सर्वथा निषेध है।
♦ आसन विरुद्ध किसी भी स्थिति में बैठकर, लेटकर अथवा पैर फैलाकर जप करना वर्जित है।
♦ खांसी, छींक, थूकना, खखार, जैसी व्याधि के समय जप न करें। यदि कभी ऐसी स्थिति आन भी पड़े तो इष्टदेव का स्मरण करते हुए आचमन से मुख शुद्धिकरण करके फिर से जप प्रारम्भ करें।
♦ मन्त्र जप के समय वाणी अथवा संकेत, दोनों के माध्यम से वार्तालाप करना वर्जित हैं।
♦ सर पर शिखा है अथवा केश बड़े अथवा लम्बे हैं तो उन्हें खोलकर जप नहीं करना चाहिए।
♦ मन्त्र जप साधना काल में अंधकारपूर्ण स्थान पर बैठकर जप करना भी वर्जित है। यदि एकान्त के रूप में कोई कोठरी चयनित की गयी हो, तो वहाँ दीपक अवश्य ही जलता रहना चाहिए।
♦ मन्त्र जप के समय निर्धारित मणियों से निर्मित माला ही होनी चाहिए। काम चलाऊ अथवा सजावटी, रेडियम, प्लास्टिक अथवा कांच से निर्मित माला का प्रयोग वर्जित है।
♦ जप के समय माला की मणियों को तर्जनी अंगुली से नहीं छूना चाहिए।
♦ जप माला की मणियों पर नाखून का स्पर्श वर्जित है।
♦ मन्त्र जप में माला का उपयोग बायें हाथ से करना वर्जित है।
♦ जप के समय माला पूरी हो जाने पर सुमेरु का उल्लंघन नहीं किया जाता। वहीं से फिर उल्टी दिशा में लौट आना चाहिए।
♦ मन्त्र जप के समय जप माला कदापि भूमि पर न तो गिरनी चाहिए अथवा न ही छूनी चाहिए।
♦ माला जपते समय उंगलियों एवं मणियों के बीच कोई व्यवधान अथवा अन्तर नहीं आना चाहिए।
♦ माला चाहे नई हो अथवा पुरानी, उसे पिरोते समय मुहूर्त, दिन, योग अशुभ नहीं होना चाहिए।
♦ मन्त्र जप साधना काल में अधो अंगों को स्पर्श करना वर्जित है।
♦ साधनाकाल में रात्रि शयन, सुखद बिछौने पर नहीं करना चाहिए। धरती पर दरी बिछाकर उस पर सोना चाहिए। यदि ऐसा संभव न हो तो ठोस पलंग पर सोना चाहिए।
♦ मन्त्र साधना प्रारम्भ करने के पश्चात् बिना उसका विधिवत समापन किये, बीच में ही अधूरी नहीं छोड़ देनी चाहिए।
♦ साधना के स्थान में क्रोधी, विश्वासघाती, तामसी, राजसी प्रवृत्ति वाले, शत्रु, द्वेषी, परनिन्दक, पातकी, अपवित्र, चाण्डाल, शूद्र अथवा किसी पशु जैसे कुत्ता अथवा बिल्ली का प्रवेश वर्जित है।
♦ सम्पूर्ण मन्त्र जप साधना काल में दुर्वचन, परनिन्दा, हिंसा, क्रोध, प्रलाप, शोक, शाप, यौनाचार, दान की वस्तु, लोभ, द्यूतक्रीड़ा एवं अपराधी व्यक्ति का सम्पर्क सर्वथा त्याज्य है। साधक को इन सबसे दूर, शुद्ध व शान्त वातावरण में रहना चाहिए।
♦ यात्रा में अथवा रुग्ण होने पर, जब नित्य की भांति जप साधना सम्भव न हो तो, देवता से तब तक के लिए क्षमा याचना करके अवधि ली जाती है। परन्तु ऐसी स्थिति में भी मन्त्र को भुलाया नहीं जाता। ऐसे समय अंतर्मन में जप अवश्य होता रहे।
♦ पूजा के पश्चात् बची हुई सामग्री इधर-उधर न फेंककर उसका समुचित उपयोग करना चाहिए। अक्षत आदि पक्षियों को, नैवेद्य प्रसाद बालकों को दे देना चाहिए। पूजनोपरान्त बचा हुआ लोटे का जल सूर्य के अर्ध्य में प्रयुक्त कर लेना चाहिए। कूड़े कचरे में या आम रास्ते में इन पदार्थों को फेकना निषेध है।
♦ सुयोग्य गुरु अथवा मन्त्र विशेषज्ञ का निर्देश पाये बिना, मनमाने ढंग से मन्त्र जप साधना कदापि नहीं करनी चाहिए।
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